RASHTRA DEEP NEWS BIKANER। मणिपुर दहल रहा है। जल रहा है। लोग अपने भरे पूरे घर छोड़कर दूसरे राज्यों के, दूसरे शहरों में, यहाँ-वहाँ रिश्तेदारों, पहचान वालों के पास शरण ले रहे हैं। हिंसा के चलते पूरा महीना बीत गया, लेकिन रुकने का नाम नहीं ले रही है। सुरक्षा बलों को सख़्ती से निबटने के आदेश देने के सिवाय सरकार और कुछ कर नहीं पा रही है।
मूल समस्या क्या है? उसे कैसे निबटाया जाए? इस ओर कोई कंक्रीट प्रयास अब तक दिखाई नहीं देते। कोई इन हिंसात्मक घटनाओं में जुटे लोगों को उग्रवादी कह रहा है, कोई आतंकवादी ! दरअसल, ये आदिवासी समूह हैं। एक तरफ़ कुकी-चिन जनजातियाँ हैं और दूसरी तरफ़ इम्फाल घाटी में बसे ते हैं। दोनों के बीच हक़ की लड़ाई है। एक तरह से कहा जा सकता है कि यह ज़मीन का झगड़ा है।
वास्तव में मणिपुर की पहाड़ियों में नगा और कुकी के बीच ज़मीनों का झगड़ा 1990 के दशक में भी हो चुका है। नगाओं का कहना था कि कुकी लोगों ने उनके मकान हड़प लिए हैं जबकि कुकी लोगों का कहना है कि नगा संगठन एनएससीएन ने तब उनके सैकड़ों गाँव उजाड़ दिए थे और हमारे निःशस्त्र लोगों की हत्याएं भी की थीं।
बात तब भड़की जब मणिपुर के दस कुकी विधायकों ने केंद्र को पत्र लिखकर अलग प्रशासन की माँग की। इनमें छह- सात विधायक भाजपा के थे। खुले तौर पर न सही, लेकिन कुल मिलाकर यह अलग कुकी प्रदेश जैसी ही माँग थी।
सही मायने में आबादी और ज़मीन का असमान क़ब्ज़ा या वितरण ही इस झगड़े का मुख्य कारण है। मैतेई की आबादी 52 से 60 प्रतिशत है, लेकिन वे मणिपुर के दस प्रतिशत हिस्से में रहते हैं। बाक़ी बचे नब्बे प्रतिशत हिस्से में विभिन्न आदिवासी या जनजातीय समुदाय रहते हैं।
इस बार की हिंसा पहाड़ी जनजातियों में इस आशंका के चलते फैली कि वैष्णवी हिंदू मैतेई को अनुसूचित जाति की श्रेणी में रखा जा रहा है। पहाड़ी जनजातियों को यह आशंका है कि अगर मैतेई को यह दर्जा मिल गया तो वे सारी नौकरियाँ भी ले लेंगे और पहाड़ियों में सारी जमीन भी ख़रीद लेंगे जो कि वे अभी एससी / एसटी में न होने के कारण नहीं ख़रीद सकते।
वैसे भी मैतेई की आर्थिक स्थिति यहाँ ठीक है इसलिए जमीन ख़रीदने में उन्हें फिर कोई परेशानी नहीं होगी। ज़मीनों का असमान वितरण कोई भेदभाव के तहत नहीं किया गया है क्योंकि आख़िरकार तो ये पहाड़, ये ज़मीन जनजातियों के ही हैं। वे इन्हें अपने पुरखों की विरासत मानते हैं और कोई इन्हें छीन ले, यह वे होना नहीं देना चाहते।
मैतेइयों का कहना है कि हमारी आबादी भी बढ़ रही है और हमारे लिए भी ज़मीन बहुमूल्य है। कुल मिलाकर जनजातियों की आशंका और मैतेइयों का आक्रोश दोनों ही अपनी जगह सही हैं, लेकिन राज्य सरकार की ओर से समाधान के नाम पर कुछ नहीं किया जा रहा है।
उल्टे राज्य की भाजपा सरकार ने जनजाति समूहों या उनकी परिषद से बात किए बिना ही पहाड़ियों के वन क्षेत्र को संरक्षित वन तथा वन्य जीव अभयारण्य घोषित करके जले पर नमक छिड़क दिया। बहरहाल, इस समस्या का मिल-बैठकर ही समाधान निकाला जा सकता है। समय के भरोसे इस समस्या को छोड़ने से न तो कोई समाधान होने वाला है और न ही हिंसा रुकने के कोई संकेत हैं।