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सिद्धारमैया को मिल सकती है कर्नाटक की कमान, डीके शिवकुमार हो सकते हैं डिप्टी सीएम…

RASHTRA DEEP। जेसा कि हर चुनाव के बाद होता है, हारी हुई पार्टी इस कोशिश में रहती है कि कैसे जीती हुई पार्टी की खेमेबाजी और कुर्सी की जंग को हवा दी जाए, कर्नाटक में भी वैसा ही हो रहा है। इसमें सबके लिए रोल मॉडल बने हुए हैं सचिन पायलट जिन्होंने राजस्थान में अपनी ही सरकार के खिलाफ लंबे समय से मोर्चा खोल रखा है। कर्नाटक में भी यही कोशिश शुरु से हो रही है कि प्रदेश अध्यक्ष डी के शिवकुमार और विपक्ष के नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के बीच कैसे दरार पैदा की जाए, कैसे मुख्यमंत्री को लेकर इनकी महत्वाकांक्षाओं को सतह पर लाया जाए। 63 साल के डी के शिवकुमार जिस तरह भावुक हुए और जिस तरह उन्होंने सिद्धारमैया समेत केन्द्रीय नेतृत्व और पार्टी कार्यकर्ताओं का आभार जताया, उसे महसूस किया जाना चाहिए।

75 साल के सिद्धारमैया की डीके शिवकुमार इज्जत भी करते हैं और उनकी सरकार में उद्योग मंत्री भी रह चुके हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री की जंग को लेकर जिस तरह की बातें की जा रही हैं, उसे कांग्रेस नेतृत्व बहुत ही संजीदगी के साथ देख औऱ समझ रहा है। भाजपा की तरफ से यह प्रचारित किया जा रहा है कि कांग्रेस अपने विधायकों को बचाने के लिए पंचतारा होटल बुक कर रही है और अभी कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी और बढ़ने वाली है, वगैरह वगैरह। लेकिन वह ये भूल गए हैं कि कांग्रेस ने जिस तरह अपनी खोई ज़मीन वापस ली है और जिस तरह राहुल गांधी ने सबको जोड़ने की मुहिम छेड़ी है, उसका बहुत गहरा असर हुआ है। बेशक यह असर फिलहाल राजस्थान में नहीं दिख रहा हो, लेकिन कर्नाटक और राजस्थान में बहुत फर्क है।

कांग्रेस इस बार प्रचंड बहुमत से जीतकर आई है और इस बार उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं है, इसलिए मुख्यमंत्री के सवाल पर बहुत टकराव होने की संभावना कम ही नजर आ रही है। माना यही जा रहा है कि दोनों ही बड़े दावेदारों को पार्टी आलाकमान नाखुश नहीं करेगा। इस फार्मूले की पूरी संभावना है कि सिद्धारमैया को उनके अनुभव और वरिष्ठता के आधार पर प्रदेश की कमान सौंपी जा सकती है, साथ ही डी के शिवकुमार को उप मुख्यमंत्री और सिद्धारमैया के सबसे विश्वस्त कमांडर के तौर पर रखा जा सकता है। अभी बेशक इस बारे में खुलकर कोई नहीं बोल सकता क्योंकि अंतिम फैसला पार्टी आलाकमान और खासकर अध्य़क्ष मल्लिकार्जुन खरगे को करना है तो जाहिर है इसपर मुहर विधायक दल की बैठक में ही लगेगी।

दरअसल कांग्रेस के लिए कर्नाटक की जीत के कई मायने हैं। इसे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर मानिए या फिर कर्नाटक के ही सबसे वरिष्ठ ज़मीनी नेता मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने का नतीजा, सबसे बड़ी बात ये सामने आई कि यहां की जनता ने यह साबित कर दिया कि अब उन राज्यों में मोदी मैजिक का असर नहीं हो रहा जहां स्थानीय मुद्दे या फिर जनता से जुड़े बड़े सवाल मायने रखते हैं। वहां धार्मिक या कथित तौर पर हिन्दू राष्ट्रवाद का फार्मूला भी नाकाम साबित होता है। किसी भी मुद्दे का ओवरडोज़ जनता शायद पचा नहीं पा रही है। इतने के बावजूद तमाम चैनलों पर भाजपा के नेतागण यह मानने को तैयार नहीं हैं कि उनकी नैतिक हार हुई है, वह बार बार यही कह रहे हैं कि उनकी वजह से ही कांग्रेस के विचारधारा का भगवाकरण हुआ है, राम और हनुमान में आस्था बढ़ी है, पूजा पाठ और मंदिरों की तरफ उनका झुकाव हुआ है औऱ यही भाजपा के विचारधारा की जीत है। इस बेबुनियाद तर्क से वे साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि संघ, जनसंघ या भाजपा से पहले भगवान में किसी की आस्था नहीं थी, कोई मंदिर नहीं जाता था या कोई पूजा पाठ नहीं करता था। जनता ने इस कुतर्क को हिमाचल में भी ठुकराया और अब कर्नाटक में तो जो नतीजे आए, सबके सामने है।

खरगे की नेतृत्व क्षमता पर कर्नाटक की जनता ने लगाई मुहर, नेतृत्व को लेकर बरसों से जिस तरह कांग्रेस पशोपेश और संकट में घिरी रही, आखिरकार मल्लिकार्जुन खरगे को 19 अक्टूबर 2022 को यह कमान सौंपी गई। इस बारे में सबसे पहले अमर उजाला ने 27 सितंबर को ही खबर दे दी थी कि खरगे कांग्रेस के अध्य़क्ष बन सकते हैं। 80 साल के खरगे के अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी में नए उत्साह और ऊर्जा के साथ आगे की रणनीतियां बनने लगीं। हालांकि राहुल गांधी ने 7 सितंबर से ही अपनी भारत जोड़ो यात्रा कन्याकुमारी से शुरु कर दी थी। केरल के बाद पहला बड़ा पड़ाव कर्नाटक था। जहां राहुल गांधी ने 21 दिनों तक करीब सवा पांच सौ किलोमीटर और आठ अहम जिलों में अपनी यात्रा के दौरान तमाम लोगों के बीच जाकर वहां की समस्याएं सुनीं और मोहब्बत का पैगाम दिया।

जाहिर है इसके तुरंत बाद खरगे को पार्टी की कमान मिली और फिर इस यात्रा ने 30 जनवरी तक 12 राज्यों में अपना असर दिखाया। नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में जिस तरह हिमाचल में कांग्रेस को बड़ी कामयाबी मिली, उससे साफ हो गया कि खरगे के अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी में नई ऊर्जा आई है। अपने गृह राज्य कर्नाटक में चुनाव जीतना खरगे के लिए एक बड़ी चुनौती थी और आखिरकार वहां भाजपा ने असल मुद्दों को दरकिनार कर धार्मिक ध्रुवीकरण की जो कोशिश की उससे खरगे और कांग्रेस को और फायदा पहुंचा। साथ ही कांग्रेस नेताओं पर इसी दौरान की गई कार्रवाइयों ने भी भाजपा के प्रति लोगों के आक्रोश को बढ़ाया और खरगे के नेतृत्व में कांग्रेस की जमीन मजबूत हुई। जाहिर है अब खरगे के सामने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे अहम राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की बड़ी चुनौती है। और उसके बाद सबसे बड़ी चुनौती तो 2024 है ही।

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